Saint Kabir Das(संत कबीर दास)


Kabir Das ke Dohe in Hindi
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
कबीर एक ऐसी शख्शियत जिसने कभी शास्त्र नही पढा फिर भी ज्ञानियों की श्रेणीं में सर्वोपरी। कबीर, एक ऐसा नाम जिसे फकीर भी कह सकते हैं और समाज सुधारक भी ।
मित्रों, कबीर भले ही छोटा सा एक नाम हो पर ये भारत की वो आत्मा है जिसने रूढियों और कर्मकाडों से मुक्त भारत की रचना की है। कबीर वो पहचान है जिन्होने, जाति-वर्ग की दिवार को गिराकर एक अद्भुत संसार की कल्पना की।
मानवतावादी व्यवहारिक धर्म को बढावा देने वाले कबीर दास जी का इस दुनिया में प्रवेश भी अदभुत प्रसंग के साथ हुआ।माना जाता है कि उनका जन्म  सन् 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वाराणसी के निकट लहराता नामक स्थान पर हुआ था ।उस दिन नीमा नीरू संग ब्याह कर डोली में बनारस जा रही थीं, बनारस के पास एक सरोवर पर कुछ विश्राम के लिये वो लोग रुके थे। अचानक नीमा को किसी बच्चे के रोने की आवाज आई वो आवाज की दिशा में आगे बढी। नीमा ने सरोवर में देखा कि एक बालक कमल पुष्प में लिपटा हुआ रो रहा है। निमा ने जैसे ही बच्चा गोद में लिया वो चुप हो गया। नीरू ने उसे साथ घर ले चलने को कहा किन्तु नीमा के मन में ये प्रश्न उठा कि परिजनों को क्या जवाब देंगे। परन्तु बच्चे के स्पर्श से धर्म, अर्थात कर्तव्य बोध जीता और बच्चे पर गहराया संकट टल गया। बच्चा बकरी का दूध पी कर बङा हुआ। छः माह का समय बीतने के बाद बच्चे का नामकरण संस्कार हुआ। नीरू ने बच्चे का नाम कबीर रखा किन्तु कई लोगों को इस नाम पर एतराज था क्योंकि उनका कहना था कि, कबीर का मतलब होता है महान तो एक जुलाहे का बेटा महान कैसे हो सकता है? नीरू पर इसका कोई असर न हुआ और बच्चे का नाम कबीर ही रहने दिया। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि अनजाने में ही सही बचपन में दिया नाम बालक के बङे होने पर सार्थक हो गया। बच्चे की किलकारियाँ नीरू और नीमा के मन को मोह लेतीं। अभावों के बावजूद नीरू और नीमा बहुत खुशी-खुशी जीवन यापन करने लगे।
कबीर को बचपन से ही साधु संगति बहुत प्रिय थी। कपङा बुनने का पैतृक व्यवसाय वो आजीवन करते रहे। बाह्य आडम्बरों के विरोधी कबीर निराकार ब्रह्म की उपासना पर जोर देते हैं। बाल्यकाल से ही कबीर के चमत्कारिक व्यक्तित्व की आभा हर तरफ फैलने लगी थी। कहते हैं- उनके बालपन में काशी में एकबार जलन रोग फैल गया था। उन्होने रास्ते से गुजर रही बुढी महिला की देह पर धूल डालकर उसकी जलन दूर कर दी थी।
कबीर का बचपन बहुत सी जङताओं एवं रूढीयों से जूझते हुए बीत रहा था। उस दौरान ये सोच प्रबल थी कि इंसान अमीर है तो अच्छा है। बङे रसूख वाला है तो बेहतर है। कोई गरीब है तो उसे इंसान ही न माना जाये। आदमी और आदमी के बीच फर्क साफ नजर आता था। कानून और धर्म की आङ में रसूखों द्वारा गरीबों एवं निम्नजाती के लोगों का शोषण होता था। वे सदैव सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध थे और इसे कैसे दूर किया जाये इसी विचार में रहते थे।
एक बार किसी ने बताया कि संत रामानंद स्वामी ने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लङाई छेङ रखी है। कबीर उनसे मिलने निकल पङे किन्तु उनके आश्रम पहुँचकर पता चला कि वे मुसलमानों से नही मिलते। कबीर ने हार नही मानी और पंचगंगा घाट पर रात के अंतिम पहर पर पहुँच गये और सीढी पर लेट गये। उन्हे पता था कि संत रामानंद प्रातः गंगा स्नान को आते हैं। प्रातः जब स्वामी जी जैसे ही स्नान के लिये सीढी उतर रहे थे उनका पैर कबीर के सीने से टकरा गया। राम-राम कहकर स्वामी जी अपना पैर पीछे खींच लिये तब कबीर खङे होकर उन्हे प्रणाम किये। संत ने पूछा आप कौन? कबीर ने उत्तर दिया आपका शिष्य कबीर। संत ने पुनः प्रश्न किया कि मैने कब शिष्य बनाया? कबीर ने विनम्रता से उत्तर दिया कि अभी-अभी जब आपने राम-राम कहा मैने उसे अपना गुरुमंत्र बना लिया। संत रामदास कबीर की विनम्रता से बहुत प्रभावित हुए और उन्हे अपना शिष्य बना लिये। कबीर को स्वामी जी ने सभी संस्कारों का बोध कराया और ज्ञान की गंगा में डुबकी लगवा दी।
कबीर पर गुरू का रंग इस तरह चढा कि उन्होने गुरू के सम्मान में कहा है,
सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज।
सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुंण लिखा न जाए।।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
ये कहना अतिश्योक्ति नही है कि जीवन में गुरू के महत्व का वर्णन कबीर दास जी ने अपने दोहों में पूरी आत्मियता से किया है। कबीर मुसलमान होते हुए भी कभी मांस को हाँथ नही लगाया । कबीर जाँति-पाँति और ऊँच-नीच के बंधनो से परे फक्कङ, अलमस्त और क्रांतिदर्शी थे। उन्होने रमता जोगी और बहता पानी की कल्पना को साकार किया।
कबीर का व्यक्तित्व अनुकरणीय है। वे हर तरह की कुरीतियों का विरोध करते हैं। वे साधु-संतो और सूफी-फकीरों की संगत तो करते हैं लेकिन धर्म के ठेकेदारों से दूर रहते हैं। उनका कहना है कि-
हिंदू बरत एकादशी साधे दूध सिंघाङा सेती।
अन्न को त्यागे मन को न हटके पारण करे सगौती।।
दिन को रोजा रहत है, राति हनत है गाय।
यहां खून वै वंदगी, क्यों कर खुशी खोदाय।।
जीव हिंसा न करने और मांसाहार के पीछे कबीर का तर्क बहुत महत्वपूर्ण है। वे मानते हैं कि दया, हिंसा और प्रेम का मार्ग एक है। यदि हम किसी भी तरह की तृष्णां और लालसा पूरी करने के लिये हिंसा करेंगे तो, घृणां और हिंसा का ही जन्म होगा। बेजुबान जानवर के प्रति या मानव का शोषण करने वाले व्यक्ति कबीर के लिये सदैव निंदनीय थे।
कबीर सांसारिक जिम्मेवारियों से कभी दूर नही हुए। उनकी पत्नी का नाम लोई था, पुत्र कमाल और पुत्री कमाली। वे पारिवारिक रिश्तों को भी भलीभाँति निभाए। जीवन-यापन हेतु ताउम्र अपना पैतृक कार्य अर्थात जुलाहे का काम करते रहे।
कबीर घुमक्ङ संत थे अतः उनकी भाषा सधुक्कङी कहलाती है। कबीर की वांणी बहुरंगी है। कबीर ने किसी ग्रन्थ की रचना नही की। अपने को कवि घोषित करना उनका उद्देश्य भी न था। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों का संकलन किया जो ‘बीजक’ नाम से जाना जाता है। इस ग्रन्थ के तीन भाग हैं, ‘साखी’, ‘सबद’ और ‘रमैनी’। कबीर के उपदेशों में जीवन की दार्शनिकता की झलक दिखती है। गुरू-महिमा, ईश्वर महिमा, सतसंग महिमा और माया का फेर आदि का सुन्दर वर्णन मिलता है। उनके काव्य में यमक, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास आदि अलंकारों का सुन्दर समावेश दिखता है। भाषा में सभी आवश्यक सूत्र होने के कारण हजारी प्रसाद दिव्वेदी कबीर को “भाषा का डिक्टेटर” कहते हैं। कबीर का मूल मंत्र था,
“मैं कहता आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखिन”।
कबीर की साखियों में सच्चे गुरू का ज्ञान मिलता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कबीर के काव्य का सर्वाधिक महत्व धार्मिक एवं सामाजिक एकता और भक्ती का संदेश देने में है।
कबीर दास जी का अवसान भी जन्म की तरह रहस्यवादी है। आजीवन काशी में रहने के बावजूद अन्त समयसन् 1518 के करीब मगहर चले गये थे क्योंकि वे कुछ भ्रान्तियों को दूर करना चाहते थे। काशी के लिये कहा जाता था कि यहाँ पर मरने से स्वर्ग मिलता है तथा मगहर में मृत्यु पर नरक। उनकी मृत्यु के पश्चात हिन्दु अपने धर्म के अनुसार उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे और मुसलमान अपने धर्मानुसार विवाद की स्थिती में एक अजीब घटना घटी उनके पार्थिव शरीर पर से चादर हट गई और वहाँ कुछ फूल पङे थे जिसे दोनों समुदायों ने आपस में बाँट लिया। कबीर की अहमियत और उनके महत्व को जायसी ने अपनी रचना में बहुत ही आतमियता से परिलाक्षित किया है।
ना नारद तब रोई पुकारा एक जुलाहे सौ मैं हारा।
प्रेम तन्तु नित ताना तनाई, जप तप साधि सैकरा भराई।।

मित्रों, ये कहना अतिश्योक्ति न होगी की कबीर विचित्र नहीं हैं सामान्य हैं किन्तु इसी साघारणपन में अति विशिष्ट हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व कोई नही है।